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शनिवार, 19 नवंबर 2011

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (5)

संस्कृत वाङ्मय में कामशास्त्र की परम्परा (5)
गतांक से आगे ………

05. आचार्य चारायण कृत साधारण अधिकरणीय ग्रन्थ:-

कामसूत्र के अनुसार आचार्य चारायण ने दत्तक की ही भाँति कामसूत्र के साधारण अधिकरण को आधार बना कर स्वतंत्र रूप से ग्रन्थ का प्रणयन किया -
तत्प्रसंगात् चारायणः साधारणमधिकरणं पृथक्प्रोवाच।(कामसूत्र 1/1/12)
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य चारायण का स्मरण कौटिलीय अर्थशास्त्र में तृणमिति दीर्घचारायणः।(5/93/4)कहकर एवं पातञ्जल महाभाष्य सूत्र 1/1/72के भाष्य में किया गया है। अर्थशास्त्र से यह प्रतीत होता है कि ये किसी राज्य के महामात्य थे। ये कृष्णयजुर्वेद की चारायणीय शाखा के प्रर्वतक, चाराणीय शिक्षा के रचयिता एवं अर्थशास्त्र के मर्मज्ञ थे। इन्होंने कामशास्त्र के सुसंस्कृत मानव जीवनचर्या रूप साधारण अधिकरण पर विशेष प्रकाश डाला है। इनका समय ई.पू. तृतीय शतक से पूर्व अनुमानित है। आचार्य चारायण मूलतः समाजविज्ञानी थे। चूंकि आचार्य वात्स्यायन ने साधारण अधिकरण के अधिकारी विद्वान् के रूप में इनके मतों का उल्लेख किया है अतएव इनका कामशास्त्र के आचार्य के रूप में यहॉ उल्लेख किया जा रहा है।
आचार्य वात्स्यायन ने कामसूत्र में चारायण के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नागरकवृत्तप्रकरण में नागरक की भोजन व्यवस्था के प्रसंग में एवं नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय विधवा स्त्री को पंचम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में प्रस्तुत किया है।

06. घोटकमुखकृत कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ:-

कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य घोटकमुख ने कामसूत्र के तृतीय अधिकरण कन्यासम्प्रयुक्तक को आधार बनाकर अपने ग्रन्थ की रचना की -
घोटकमुखः कन्यासम्प्रयुक्तम्।(कामसूत्र 1/1/12)
आचार्य घोटकमुख का उल्लेख कौटिलीय अर्थशास्त्र, बौद्ध ग्रन्थ मज्झिमनिकाय, जैन ग्रन्थ नन्दिसूत्र एवं अनुयोगदारसूत्र में प्राप्त होता है। मज्झिमनिकायके घोटकमुखसुत्त के अनुसार आचार्य घोटकमुख अंगराज के अमात्य थे। इन्हें पांच सौ कार्षापण (तत्कालीन मुद्रा की एक इकाई) दैनिक वेतन प्राप्त होता था, बाद में ये बौद्ध बन गए थे। आचार्य कौटिल्य ने शीटा शाटीति घोटकमुखः’ (कौ0अर्थ04/93/5) कहकर इन्हें किसी राजा का अमात्य स्वीकार किया है। चूंकि आचार्य घोटकमुख कौटिल्य द्वारा स्मृत हैं, अतः इनका समय चतुर्थ शतक ई.पू. अनुमानित है।
कामसूत्रीय विवरणनुसार आचार्य घोटकमुख ने विवाहयोग्य कन्या हेतु उसके अभिभावक द्वारा अथवा अवस्थाप्राप्त कन्या द्वारा स्वयं अनुकूल वर चयन कर सामाजिक जीवन निर्वाह को आधार बनाकर कन्यासम्प्रयुक्तकाश्रित ग्रन्थ का निर्माण किया। ये मुख्यरूपेण अर्थशास्त्र एवं गौणरूपेण कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए हैं।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में घोटकमुख के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय  गणिका की अक्षतयोनि पुत्री अथवा परिचारिका को सप्तम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; कन्यासम्प्रयुक्तक अधिकरण के वरणसंविधानप्रकरण में योग्य कन्या के विषय में पुष्टि हेतु, कन्याविस्रम्भणप्रकरण में लज्जाशील कन्या के स्वभाव कथन हेतु, बालोपक्रमप्रकरण में बाल्यकालिक प्रेम की उत्कृष्टता हेतु तथा एकपुरुषाभियोगप्रकरण में अनुरक्त कन्या की प्राप्ति के विषय में नायक द्वारा निरन्तर प्रयास किए जाने के प्रसंग मेंप्रस्तुत करते हैं।

07. सुवर्णनाभ कृत साम्प्रयोगविधान तन्त्र:-

कामसूत्र में प्राप्त विवरणानुसार आचार्य सुवर्णनाभ ने कामसूत्र के द्वितीय अधिकरण साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर पृथग्रूपेण साम्प्रयोगविधानतन्त्र रूप अपने ग्रन्थ का प्रणयन किया -
सुवर्णनाभः साम्प्रयोगिकम्। (कामसूत्र 1/1/12)
आचार्य सुवर्णनाभ का उल्लेख कामसूत्र के अतिरिक्त काव्यमीमांसा में प्राप्त होता है। राजशेखर ने रीतिनिर्णयं सुवर्णनाभः(का0मी0 1/2) कह कर आचार्य सुवर्णनाभ को काव्यपुरुष की रीतिनिर्णयविद्या का आधिकारिक आचार्य स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त इनका कोई अन्य उल्लेख नहीं प्राप्त होता है।
आचार्य सुवर्णनाभ ने अपनी नवीन उद्भावनाओं सहित बाभ्रवीय कामसूत्र के रतिक्रीडापरक साम्प्रयोगिक अधिकरण को आधार बनाकर सम्प्रयोगविधानतन्त्रपरक ग्रन्थ का प्रणयन किया था, जिसमें सहृदय नागरिकों की सुव्यवस्थित जीवनचर्या का निरूपण करते हुए बाभ्रवीय संप्रयोगविधान के अतिरिक्त विविध प्रकार के आलिंगन, संवेशन आदि के नवीन विधानों का प्रवर्तन भी किया गया है। ये धर्मशास्त्र एवं कामशास्त्र के आचार्य विशेष माने गए है।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में सुवर्णनाभ के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय प्रव्रजिता स्त्री को षष्ठ प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; साम्प्रयोगिक अधिकरण के आलिगंनविचारप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए आलिगंनभेदों के अतिरिक्त चार प्रकार के नवीन आलिगंनभेद कथन के प्रसंग में, नखरदनजातिप्रकरण में रतिक्रीड़ा में प्रवृत्त व्यक्ति के लिए विधिनिषेध से परे होने के प्रसंग में, दशनच्छेदविधिप्रकरण में देशपरक रीति की अपेक्षा व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक रुचि एवं प्रीति की श्रेष्ठता के कथन के प्रसंग में, संवेशनविधिप्रकरण में बाभ्रव्य द्वारा बताए गए संवेशनविधान के अतिरिक्त ग्यारह प्रकार के नवीन संवेशनविधि कथन के प्रसंग में तथा पुरुषायितप्रकरण में संवेशनक्रम में स्त्री के आनन्दप्राप्ति के रहस्यकथन के प्रसंग मेंप्रस्तुत करते हैं।

08. गोनर्दीय प्रणीत भार्याधिकारिक तन्त्र:-

आचार्य गोनर्दीय मुख्यतः व्याकरणशास्त्र के आचार्य है। इन्होंने कामसूत्र के चतुर्थ अधिकरण भार्याधिकारिक अधिकरण, जो पारिवारिक दृष्टिकोण से युक्त था; पर स्वतन्त्र रूप से नवीन ग्रन्थ भार्याधिकारिक तन्त्रका प्रणयन किया -
गोनर्दीयो भार्याधिकारिकम् (कामसूत्र 1/1/12)
कामसूत्र के अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय का स्मरण महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/1/21, 1/1/29, 3/1/92 एवं 7/2/102 के व्याख्यान के प्रसंग में किया गया है।
आचार्य गोनर्दीय के बारे में यत्किंचित जो कुछ भी विवरण उपलब्ध होता है, उनमें से एक मत के अनुसार आचार्य पतञ्जलि का ही देशज नाम गोनर्दीय था। क्योंकि गोनर्दीय शब्द का अर्थ गोनर्दप्रान्तीय व्यक्ति होता है। भारत में गोनर्द नाम से तीन स्थान प्रसिद्ध है, प्रथम कश्मीर राज्य का गोनर्द स्थान, द्वितीय मध्यदेश में गोनर्द नामक नगर तथा तृतीय अयोध्या के समीप गोनर्द नगर (वर्तमान में गोण्डा जनपद)। इन तीनों स्थानों में से व्याकरण की दृष्टि से कश्मीरीय या मध्यदेशीय गोनर्द की अपेक्षा प्राच्य गोनर्द से ही गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। क्योंकि एड्. प्राचां देशे सूत्र से पूर्व देशवाची शब्द की ही वृद्धिसंज्ञा होती है एवं वृद्धिसंज्ञा होने पर ही वृद्धाच्छः सूत्र से ईय्प्रत्यय सम्भव है। काशिका में सूत्र सं0 1/1/75 में गोनर्द को प्राच्य देश माना गया है। ब्रह्माण्डपुराण में गोनर्द जनपद का स्मरण मल्ल एवं मगध के साथ किया गया है-
मल्लमगध गोनर्दाः प्राच्यां जनपदाः स्मृताः। (1/2/17/54)
ध्यातव्य है कि मल्ल जनपद की पूर्वी सीमा मगध से लगती थी एवं पश्चिमी सीमा गोनर्द (वर्तमान में उत्तर प्रदेश के गोण्डा) जनपद से। अतः कहा जा सकता है कि गोनर्द (गोण्डा) देश का निवासी होने के कारण शास्त्रकार का देशज नाम गोनर्दीयपड़ा था। इसके अतिरिक्त महाभारत के शान्तिपर्व में कथित शिवसहस्त्रनाम के अनुसार गोनर्दभगवान शंकर का ही एक नाम है। अतः वानामधेयस्य वार्तिक से नामधेय की विकल्प से वृद्धिसंज्ञा हो जाने के कारण भी गोनर्दीय प्रयोग उपपन्न होता है। इस स्थिति में भर्तृहरि, कैयट, राजशेखर, वैजयन्तीकोशकार, शिवरामेन्द्रसरस्वती, नागेशभट्ट आदि विद्वान् आचार्य गोनर्दीय को महाभाष्यकार पतञ्जलि का ही अपरनाम स्वीकार करते हैं किन्तु आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक, वाचस्पति गैरोला आदि विद्वान् इन्हें पतञ्जलि भिन्न मानते हैं।
यदि आचार्य भर्तृहरि जो कि आचार्य पतञ्जलि के सर्वाधिक निकट हैं; के कथन पर विश्वास किया जाय तो पतञ्जलि को आचार्य गोनर्दीय मानने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। क्योंकि प्रचलित मान्यतानुसार परमशैव आचार्य पतञ्जलि शुंगवंशीय शासक सेनापति पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे तथा पुष्यमित्र की राजधानी साकेत के निकटवर्ती गोनर्द नामक स्थान के निवासी थे। अतः आचार्य पतञ्जलि का देशज नाम एवं शैवाचार्य के रूप में गोनर्दीय उपनाम के साथ संगति उचित ही है। किन्तु आचार्य पतञ्जलि के नाम से प्राप्त अन्य ग्रन्थ सामवेदीय निदानसूत्र एवं योगसूत्र में इस प्रकार के विशेषण का कोई आधार नहीं प्राप्त होता है। यतः निश्चयेन कुछ कहा नहीं जा सकता है।
इस प्रकार आचार्य पतञ्जलि के रूप में संभावित आचार्य गोनर्दीय का समय ई.पू. द्वितीय शतक से पूर्व स्वीकार किया जा सकता है। यदि आचार्य पतञ्जलि ही गोनर्दीय हैं तो उनके द्वारा कामसूत्र के भार्याधिकारिक अधिकरण पर स्वतन्त्ररूपेण से नवीन ग्रन्थ का प्रणयन करना उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही है।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोनर्दीय के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय किशोरावस्था को प्राप्त कुलीन घर की कन्या को अष्टम प्रकार की नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में; भार्याधिकारिक अधिकरण के एकचारिणीवृत्तप्रकरण में पति-पत्नी के परस्पर समर्पण को गार्हस्थजीवन के लिए संतुष्टिदायक एवं चित्तग्राहक मानने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में पति-पत्नी के द्वारा एक-दूसरे के दुर्गुणों को किसी अन्य से न प्रकाशित करने के प्रति सचेत करने के प्रसंग में तथा ज्येष्ठादिवृत्तप्रकरण में अपनी सपत्नी के प्रति आदरभाव रखने और पुनर्भू नायिका द्वारा योग्य पुरुष के चयन के प्रसंग मेंप्रस्तुत करते हैं। 
इसके अतिरिक्त आचार्य गोनर्दीय के वचनों को विभिन्न प्रसंगों में आचार्य मल्लिनाथ ने स्वकृत रघुवंश एवं कुमारसंभव की टीकाओं में निम्न प्रकरणों में उद्धृत किया है-
(क) प्रणयसन्धि के विषय में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 16वें श्लोक की टीका में प्रणयसन्धि को विवेचित करने के प्रसंग में -
अत्र गोनर्दीयः - सन्धिद्र्विविधः सावरणप्रकाशश्च। आवरणो भिक्षुक्यादिना प्रकाशः स्वयमुपेत्य केनापि।। इति।
(ख) रतावसान के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 29वें श्लोक की टीका में रतावसान को विवेचित करने के प्रसंग में -
अत्र गोनर्दीयः - रतावसाने यदि चुम्बनादि प्रयुज्य यायान्मदनोऽस्य वासः।। इति।
(ग) गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन के संदर्भ में:- रघुवंश के उन्नीसवें सर्ग के 31वें श्लोक की टीका में गृहस्थ द्वारा वेश्यागमन काल को विवेचित करने के प्रसंग में -
अत्र गोनर्दीयः - ऋतुस्नाताभिगमने  मित्रकार्ये तथापदि।
              त्रिष्वेतेषु प्रियतमः क्षन्तव्यो वारगम्यया।।इति।
(घ) नवोढा के प्रति सखीजनों के कर्त्तव्य के संदर्भ में:- कुमारसंभव के सातवें सर्ग के 95वें श्लोक की टीका में नवविवाहिता स्त्री के प्रति सखीजनों के द्वारा करणीय कर्Ÿाव्य को विवेचित करने के प्रसंग में -
यथाह गोनर्दः - हासेन मधुना नर्मवचसा लज्जितां प्रियाम्।
             विलुप्तलज्जां कुर्वीत निपुणैश्च सखीजनैः।।इति।
वस्तुतः आचार्य गोनर्दीय द्वारा प्रणीत भार्याधिकारिकतंत्रपरक कामशास्त्रीय ग्रन्थ परिवार की मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए दम्पत्ति द्वारा रतिक्रीडाजनित नैसर्गिक आनन्द की सम्यक्प्राप्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ था।

09. गोणिकापुत्र प्रणीत पारदारिक तन्त्र:-

वात्स्यायन के उल्लेखानुसार बाभ्रव्य पांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के पंचम अधिकरण पारदारिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य गोणिकापुत्र ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से पारदारिकतन्त्रपरक नवीन ग्रन्थ का प्रणयन किया -
गोणिकापुत्रः पारदारिकम्(कामसूत्र 1/1/12)
आचार्य गोणिकापुत्र व्याकरणशास्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। आचार्य पतञ्जलि ने महाभाष्य में सूत्र संख्या 1/4/51 पर इनका स्मरण किया है। इसके अतिरिक्त इनका उल्लेख कामशास्त्रीय ग्रन्थ रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में प्राप्त होता है। आचार्य नागेशभट्ट महाभाष्य की टीका में गोणिकापुत्र को आचार्य पतञ्जलि के ही अपर नाम की संभावना करते हैं गोणिकापुत्रो भाष्यकारः इत्याहुः किन्तु भर्तृहरि, कैयट आदि वैयाकरण तथा कोशकारों ने इस नाम को पतञ्जलि का पर्याय नहीं माना है। फिर पतञ्जलि के देशवाचक नाम के रूप में संभावित गोनर्दीय के साथ ही कामसूत्र में गोणिकापुत्र का पारदारिक अधिकरण के आचार्य के रूप में स्मरण किया गया है। अतएव यदि गोनर्दीय आचार्य पतञ्जलि का अपर नाम है, तो गोणिकापुत्र कथमपि उनका अपरनाम नहीं माना जा सकता है।
उपर्युक्त तथ्यों के ऊपर विचार करने पर यही माना जा सकता है कि आचार्य गोणिकापुत्र महर्षि पतञ्जलि के पूर्ववर्ती विद्वान् थे। गोणिकापुत्र द्वारा विरचित पारदारिकतंत्रपरक ग्रन्थ तो नहीं प्राप्त होता है। हॉ ! कामसूत्र, रतिरहस्य, रतिरत्नप्रदीपिका आदि में इनके मतों का सादर उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है।
आचार्य वात्स्यायन कामसूत्र में गोणिकापुत्र के मतों का स्पष्ट उद्धरण साधारण अधिकरण के नायकसहायदूतकर्मप्रकरण में नायिकाभेद कथन के समय पुत्रोत्पादन अथवा दैहिक सुख की प्राप्ति हेतु गृहीत अन्य स्त्री को पाक्षिकी नायिका स्वीकार करने के प्रसंग में, इसी प्रकरण में अगम्या स्त्री के सन्दर्भ में बाभ्रव्य के मत कि जिस स्त्री ने पांच पुरुषों के साथ संबन्ध स्थापित कर लिया हो, उसके साथ संबन्ध स्थापित करने में कोई दोष नहीं होता हैके संशोधन में गोणिकापुत्र के पक्ष कि पांच पुरुषों से संबन्ध स्थापित कर लेने पर भी संबन्धी, मित्र, विद्वान् ब्राह्मण, गुरु, तथा राजा की स्त्री सदा अगम्या ही होती हैको प्रस्तुत करने के प्रसंग में; पारदारिक अधिकरण के शीलावस्थापनादि प्रकरण में सौन्दर्य के महŸव को प्रकट करने के उद्देश्य से कि किसी स्वस्थ एवं आकर्षक परपुरुष के प्रति स्त्री की अनुरक्ति तथा उसी प्रकार किसी लावण्यमयी परस्त्री के प्रति पुरुष की अनुरक्ति, एक सहज और नैसर्गिक प्रवृत्ति हैके कथन के संदर्भ में, दूतीकर्मप्रकरण में परपुरुष के साथ अपने प्रणय व्यापार के माध्यम हेतु विश्वस्त दूती के चयन के प्रसंग में, इसी प्रकरण में बिना परिचय एवं संकेत के सम्पन्न होने वाले दूतीकर्म के तथा सखी, भिक्षुकी, तापसी, सन्यासिनी आदि के घर को परपुरुष के साथ संबन्ध बनाने के स्थान के कथन के प्रसंग में एवं अन्तःपुरिकावृत्त प्रकरण में अन्तःपुर में प्रवेश करने के लिए वहाँ के रक्षकों को साम, दान, भेद आदि के प्रदर्शन द्वारा वशीभूत कर स्वार्थसिद्धि करने के प्रसंग मेंप्रस्तुत करते हैं।
इसके अतिरिक्त रतिरहस्य में आचार्य कोक्कोक ने चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में तथा रतिरत्नप्रदीपिका में प्रौढ़देवराज ने स्त्रीजाति एवं चन्द्रकला वर्णन के प्रसंग में गोणिकापुत्र के मत का सादर स्मरण किया है।

10. कुचुमार प्रणीत कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता:-

कामसूत्रकार के उल्लेखानुसार बाभ्रव्यपांचाल के द्वारा संपादित कामसूत्र के सप्तम अधिकरण औपनिषदिक अधिकरण का आश्रय ग्रहण कर आचार्य कुचुमार ने उसे नवीन स्वरूप देते हुए स्वतन्त्र रूप से औपनिषदिकतन्त्रपरक कूचिमारतन्त्र का प्रणयन किया -
कुचुमार औपनिषदिकमिति(कामसूत्र 1/1/12)
आचार्य कुचुमार औपनिषदिकतन्त्र के प्रामाणिक आचार्य थे। बर्नेल म्यूजियम में संग्रहीत पुस्तकों के सूचीपत्र के अनुसार 8 पटलों में विभक्त कूचिमारतन्त्र वा कुचुमारसंहिता नामक एक ग्रन्थ सन् 1922 ई0 में लाहौर से तथा सन् 1925 ई0 में धन्वन्तरि ग्रन्थावली अलीगढ, विजयगढ से प्रकाशित हुआ था। संप्रति 168 श्लोकयुत् 9 पटलों में विभक्त हिन्दी अनुवाद सहित कूचिमारतन्त्रम् नामक ग्रन्थ चैखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी से 2007 में प्रकाशित है।

11. कर्णीसुत मूलदेव प्रणीत कामतन्त्र:-

आचार्य कर्णीसुत मूलदेव का कामशास्त्रज्ञ के रूप में रतिरहस्य एवं पूर्णसरस्वती विरचित मालतीमाधव की टीका (पृ0 170) में स्मरण किया गया है। कर्णीसुत मूलदेव को संस्कृत साहित्य में बहुमान्य व्यक्तित्व से परिपूर्ण व्यक्ति के रूप वर्णित किया गया है। संस्कृत साहित्य में जिस प्रकार कुलीन नायक के रूप में वत्सराज उदयन समादृत हैं, उसी प्रकार का सम्मान कर्णीसुत मूलदेव को वैशिक नायक के रूप में प्राप्त है। महाकवि बाणभट्ट ने कादम्बरी में विन्ध्याटवी वर्णन के समय -कर्णीसुतकथेव संनिहित विपुलाचला शशोपगता च- कह कर  कर्णीसुतकथा की प्रसिद्धि का उल्लेख किया है। इस पंक्ति की व्याख्या करते समय कादम्बरी के टीकाकार आचार्य भानुचन्द्र गणि बृहत्कथा से उद्धरण प्रस्तुत करते हुए कर्णीसुत को चौर्यशास्त्र का प्रवर्तक स्वीकार करते हैं- कर्णीसुतः करटकः स्तेयशास्त्र प्रवर्तकः .....।
महाकवि शूद्रक ने पद्मप्राभृतकम् नामक भाणरूपक में कर्णीसुत मूलदेव की वैशिक प्रणयलीला का अत्यन्त मनोहारी चित्रण प्रस्तुत किया है। पद्मप्राभृतकम् के अनुसार कर्णीसुत मूलदेव पाटलिपुत्र का निवासी थे। ये कलामर्मज्ञ, कामशास्त्र के वैशिक प्रकरण के आधिकारिक विद्वान् तथा चौर्यशास्त्र का मान्य आचार्य थे एवं वाणिज्य-व्यापार, कला-संस्कृति तथा साहित्य का अन्तर्राष्ट्रीय का केन्द्र होने के कारण अवन्ती (उज्जयिनी) में ही निवास करते थे। चौर्यशास्त्र का आचार्य होने के कारण वेश्यालय के साथ उनका घनिष्ट संबन्ध था। क्योंकि वाणिज्य हेतु अन्य देशों से आए व्यापारियों एवं कला के उपासकों की संतुष्टि बिना गणिकाभवन के साहचर्य के संभव नहीं और अपने अभीष्ट की चौर्यसिद्धि में साधनभूत गणिका को वही व्यक्ति वशीभूत कर सकता है, जो चौंसठ सामान्य कलाओं एवं चौंसठ कामक्रीड़ापरक कलाओं का मर्मज्ञ हो। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण कर्णीसुत उज्जयिनी की एक प्रमुख गणिका विपुला का प्रणयभाजन बन जाते हैं, किन्तु अपनी भ्रमरवृत्ति के कारण विपुला द्वारा ठुकराए जाने पर वे दूसरी प्रमुख वेशयुवती देवदत्ता के साथ अपना प्रेमसंबन्ध बना लेते हैं। देवदत्ता के साथ प्रेमप्रसंग काल में ही उनकी दृष्टि उसकी छोटी बहिन देवसेना पर पड़ती है, कर्णीसुत देवसेना के अनिंद्य सौन्दर्य के मोहपाश में उलझ कर कामज्वर से पीड़ित हो जाते हैं। तब उनका शश नामक मित्र अपने प्रयत्नों के द्वारा देवदत्ता को अनुकूल बनाते हुए कर्णीसुत का देवसेना के साथ सम्मिलन करवाता है। इसी प्रसंग में कर्णीसुत के लिए कवि दो बार कामतन्त्रसूत्रधारविशेषण का उल्लेख करता है। इसके अतिरिक्त धूर्तविटसंवाद नामक भाणरूपक तथा भरतमुनि कृत नाट्यशास्त्र में अनेक स्थानों पर कामतन्त्र नामक ग्रन्थ का सादर उल्लेख प्राप्त होता है।
अतः निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि आचार्य कर्णीसुत मूलदेव वैशिक कामशास्त्र, कलाशास्त्र एवं चौर्यशास्त्र आदि के बहुमान्य आचार्य थे। इनका समय ई.पू. चतुर्थ शतक से ई.पू. षष्ठ शतक के मध्य संभावित है। रतिरहस्यकार ने उत्कलदेश की रमणियों को संतुष्टि प्रदान करने वाले विविध उपचारों के वर्णन के प्रसंग में आचार्य मूलदेव के मत का उल्लेख किया है।

12. कश्मीरनरेश वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र:-

महाकवि कल्हण कृत राजतरंगिणी में प्राप्त विवरणानुसार कश्मीरनरेश क्षितिनन्द के पुत्र वसुनन्द ने कामशास्त्र पर एक प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा था -
      द्वापंचाशतमब्दान्क्ष्मां द्वौ च मासौ तदात्मजः।
     अपासीद्वसुनन्दाख्यः प्रख्यात स्मरशास्त्रकृत्।।(राजतरंगिणी 1/337)।
      इस राजा ने 52 वर्ष 2 माह तक कश्मीर पर शासन किया था। इसके अतिरिक्त वसुनन्द का उल्लेख वैशिक ग्रन्थ कुट्टनीमतम् में श्लोक संख्या 76 पर किया गया है। वसुनन्द कृत स्मरशास्त्र समय की धारा में विलीन हो गया। इस ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार के विषय में मात्र इतना ही विवरण प्राप्त होता है।

क्रमशः ………….

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